 भारत जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र वाला देश होने का तमगा मिला है.
शायद इसी लोकतंत्र के लोगों को कुछ भी करने की छूट भी मिल जाती है. एक तरफ लोकशाही हावी है तो दूसरी तरफ राजनीति. इन दोनों के खीचातान में फंसा है भारत. सोने
का चिड़ियां, प्राकृतिक संसाधनों की बहुतायत उपलब्धता, लचीला संवीधान शान्ति
पसंदगी वाला यह देश अब शायद अपने आपात स्थिती से गुजर रहा है. इसका सबसे बड़ा कारण
देश में बढ़ता भ्रष्टाचार, अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई और, गिरती कानून व्यवस्था
और विकास दर. देश में जिधर भी निगाहें दौड़ाए घोटालों और नकारात्मक खबरों के अलावा
कुछ भी नया नहीं मिल पाता है. इसी के साथ प्राकृतिक संसाधनों की खुली बंदरबांट,
कुछ भी करने को
तैयार निजी क्षेत्र और एक-एक कंपनी के टर्नओवर के बराबर संपत्ति वाले
राजनेता. यदि इसी को हम देश की तरक्की और उदारवाद का नाम दे रहे हैं तो सरासर गलत
होगा.
  
भारत जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र वाला देश होने का तमगा मिला है.
शायद इसी लोकतंत्र के लोगों को कुछ भी करने की छूट भी मिल जाती है. एक तरफ लोकशाही हावी है तो दूसरी तरफ राजनीति. इन दोनों के खीचातान में फंसा है भारत. सोने
का चिड़ियां, प्राकृतिक संसाधनों की बहुतायत उपलब्धता, लचीला संवीधान शान्ति
पसंदगी वाला यह देश अब शायद अपने आपात स्थिती से गुजर रहा है. इसका सबसे बड़ा कारण
देश में बढ़ता भ्रष्टाचार, अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई और, गिरती कानून व्यवस्था
और विकास दर. देश में जिधर भी निगाहें दौड़ाए घोटालों और नकारात्मक खबरों के अलावा
कुछ भी नया नहीं मिल पाता है. इसी के साथ प्राकृतिक संसाधनों की खुली बंदरबांट,
कुछ भी करने को
तैयार निजी क्षेत्र और एक-एक कंपनी के टर्नओवर के बराबर संपत्ति वाले
राजनेता. यदि इसी को हम देश की तरक्की और उदारवाद का नाम दे रहे हैं तो सरासर गलत
होगा. Thursday, August 30, 2012
नेता-कंपनी गठजोड़ के नवयुग का आरंभ
 भारत जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र वाला देश होने का तमगा मिला है.
शायद इसी लोकतंत्र के लोगों को कुछ भी करने की छूट भी मिल जाती है. एक तरफ लोकशाही हावी है तो दूसरी तरफ राजनीति. इन दोनों के खीचातान में फंसा है भारत. सोने
का चिड़ियां, प्राकृतिक संसाधनों की बहुतायत उपलब्धता, लचीला संवीधान शान्ति
पसंदगी वाला यह देश अब शायद अपने आपात स्थिती से गुजर रहा है. इसका सबसे बड़ा कारण
देश में बढ़ता भ्रष्टाचार, अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई और, गिरती कानून व्यवस्था
और विकास दर. देश में जिधर भी निगाहें दौड़ाए घोटालों और नकारात्मक खबरों के अलावा
कुछ भी नया नहीं मिल पाता है. इसी के साथ प्राकृतिक संसाधनों की खुली बंदरबांट,
कुछ भी करने को
तैयार निजी क्षेत्र और एक-एक कंपनी के टर्नओवर के बराबर संपत्ति वाले
राजनेता. यदि इसी को हम देश की तरक्की और उदारवाद का नाम दे रहे हैं तो सरासर गलत
होगा.
  
भारत जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र वाला देश होने का तमगा मिला है.
शायद इसी लोकतंत्र के लोगों को कुछ भी करने की छूट भी मिल जाती है. एक तरफ लोकशाही हावी है तो दूसरी तरफ राजनीति. इन दोनों के खीचातान में फंसा है भारत. सोने
का चिड़ियां, प्राकृतिक संसाधनों की बहुतायत उपलब्धता, लचीला संवीधान शान्ति
पसंदगी वाला यह देश अब शायद अपने आपात स्थिती से गुजर रहा है. इसका सबसे बड़ा कारण
देश में बढ़ता भ्रष्टाचार, अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई और, गिरती कानून व्यवस्था
और विकास दर. देश में जिधर भी निगाहें दौड़ाए घोटालों और नकारात्मक खबरों के अलावा
कुछ भी नया नहीं मिल पाता है. इसी के साथ प्राकृतिक संसाधनों की खुली बंदरबांट,
कुछ भी करने को
तैयार निजी क्षेत्र और एक-एक कंपनी के टर्नओवर के बराबर संपत्ति वाले
राजनेता. यदि इसी को हम देश की तरक्की और उदारवाद का नाम दे रहे हैं तो सरासर गलत
होगा. Friday, August 24, 2012
पत्रकारिता = चाटुकारिता (पौराणिक कथा)
Sunday, December 18, 2011
अमानवीय व्यवहार।
विदेशी किराना पर किचकिच

सरकार मल्टी रिटेल ब्रांड बाजार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को मंजूरी देने पर उतारू थी। लेकिन सरकार के इस विदेशी किराने के मंसूबे पर का जबर्दस्त किचकिच और विरोध हुआ, और सरकार को ये विचार ठंडे बस्ते में डालना पड़ा। इस विचार पर सारे विरोधी दल सरकार के इस कदम का विरोध कर रहे हैं। इन दलों का कहना है कि सरकार का यह कदम देश के लाखों लोगों के लिए घातक साबित हो सकता है। रिटेल क्षेत्र की देश की कुल जीडीपी में 11 फीसदी हिस्सेदारी है। और इस क्षेत्र में लगभग 4.5 करोड़ लोगों को रोजगार मिला रहा है। 1998 की चौथी आर्थिक गणना के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में 38.2 फीसदी रोजगार रिटेल क्षेत्र में था जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 46.4 फीसदी रहा। इसलिए यह बहुत स्पष्ट सी बात है कि अगर रिटेल बाजार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को मंजूरी दी जाती है तो इसका असर रिटेल में मिलने वाले रोजगार पर अवश्य ही पड़ेगा। भारत में रिटेल आउटलेट का घनत्व काफी ज्यादा है। भारत में औसत रूप से प्रति 11 व्यक्ति पर एक रिटेल स्टोर है। अगर इस तरह से टर्न ओवर और व्यापार के लिहाज से बात करे तो यह वालमार्ट जैसी कंपनियों से तीन गुना ज्यादा है। अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि अगर इस स्थिति में वालमार्ट और टेस्को जैसी कंपनियां यहां आती हैं तो वह किस तरह से रोजगार का सृजन करेंगी और जो दावे किए जा रहे हैं उनके आने से कितने लोगों को रोजगार मिलेगा। क्या इन कंपनियों के आने के बाद जो सरकार की जो धारणा बनी हुई है वो सही साबित होती है या फिर दूर के ढोल ही सुहावना लगते है। जानते हैं कुछ खास तथ्य- दलालों पर शिकंजा लेकिन एकाधिकार का खतरा- सरकार एफडीआई पर दिए जाने वाले अपनी सभी बयानों को सही साबित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रही है ऐर अपने कदम को सही ठहराने की कोशिश कर रही है। सरकार का कहना है कि अगर मल्टीब्रांड क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को लाया जाएगा तो इससे बिचौलियों की भूमिका पर लगाम लगेगी। ये कंपनियां सीधे प्राथमिक उत्पादक से माल खरीदेंगी, जिससे किसान और छोटे उद्योगों को फायदा मिलेगा। लेकिन अगर इस पर गहराई के साथ सोचे तो सरकार का यह तर्क भी कहीं टिकता नजर नहीं आता है। अगर इन कंपनियों का इतिहास देखा जाए तो हम पाते हैं कि ये कंपनियां जहां पर भी जाती हैं पहले तो उस जहग के बाजार को समझती है उसके बाद उसपर कब्जा करने के इरादे से लोगों को प्रलोभन देती है। लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे वहां अपना आधिपत्य स्थापित कर लेती हैं और एकाधिकारी बनकर मनमाने तरीके से उत्पादों के दाम तय करती हैं। अगर ये कंपनियां सीधे किसानों और छोटे उद्योगों से सामान खरीदती हैं तो सौदा कम समय (शार्ट टर्म) के लिए तो बहुत मरहम लगाने वाला होगा लेकिन लंबे समय के बाद आसा दर्द बन जाएगा जिसपर कोई भी दवा काम नहीं कर पाएगी। ये कंपनियां अपने लाभ को बढ़ाने के लिए इन प्राथमिक उत्पादकों के अपनी मनमानी कीमत पर उत्पाद खरीदेंगी और किसान और छोटे उत्पादक कुछ नहीं कर पाएंगे। ऐसी स्थिति में बिचौलियों को खत्म करने का मतलब ही क्या रह जाएगा? यही नहीं बाजार पर अपना आधिपत्य हो जाने के बाद ये कंपनियां उपभोक्ताओं को भी नहीं बख्शती हैं और उनसे भी खूब कीमत वसूलती हैं। वैश्विक स्तर पर की जाने वाली बिक्री इन मल्टीनेशनल कंपनियों के राजस्व का महत्वपूर्ण स्रोत होती हैं बल्कि इनकी आमदनी का मुख्य जरिया ही वैश्विक बिक्री होती है। चीन का होगा दबदबा- यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि वाल मार्ट का 70 फीसदी उत्पादन चीन में होता है। इसका मतलब यह है कि वालमार्ट सामान दुनिया के चाहे किसी भी कोने में बेचे लेकिन उसका 70 फीसदी उत्पादन होता चीन में ही है। इस तरह से अगर देखा जाए तो सरकार अगर रिटेल में विदेशी मल्टीनेशनल कंपनियों को आने की मंजूरी देती है तो इससे रोजगार तो नहीं बढ़ेगा लेकिन लागत के मामले में भारतीय कंपनियों को प्रतिस्पर्धा जरूर करनी पड़ेगी।जब भारतीय कंपनियों को कोई नुकसान होता है तो इससे रोजगार प्रभावित होगा। जाहिर सी बात है कि अगर कंपनियों का मुनाफा घटेगा तो वे छंटनी करेंगी जिससे लोगों का रोजगार छिनेगा। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि अगर इन्फ्रास्ट्रक्चर का सारी जिम्मेदारी विदेशी कंपनियों के हाथों में सौंप दी जाएगी तो इस बात की कौन गारंटी देगा कि वे देशहित और ज्यादा से ज्यादा लोगों के हित में काम करेंगी। यह अपने आप में एक बहुत जटिल मुद्दा बन चुका है। इसकी संवेदनशीलता को देखते हुए सरकार को इस मुद्दे पर सोच विचार के बाद ही आगे बढनÞे का फैसला लेना चाहिए। इस तरह के मुद्दों पर समझदारी और आपसी सहमति के आधार पर ही आगे बढ़ा जाना चाहिए। नहीं तो जल्दी का काम शैतान का होता है। बिना किसी के पक्ष को सुने जबरदस्ती विदेशी किराने को जनता के उपर थोपने का परिणाम धनात्मक हुआ तो ठीक होगा, नहीं तो चिडिंया के खेत चुगने के बाद, सिर्फ माथा पिटने के अलावा हम कुछ भी नहीं कर सकते है। इसलिए अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने से कोई भी फायदा नहीं होगा। जय हिंद सौरभ कु मिश्र (मिश्र गोरखपुरिया)
Monday, October 24, 2011
महंगाई का मकड़जाल में फंसी सरकार,लाचार जनता

पिछले कुछ सालों से मुद्रास्फीति सालाना 10 फीसदी के आसपास ही मंडरा रही है। जिसका पीछे सरकार सिर्फ सरकार की नितियों का फेल होना ही सामने आता है, और दूसरी तरफ उसके (सरकार)सिर्फ बयानबाजी को दर्शाया गया है। लेकिन यह भी मुमकिन है कि खाद्य मुद्रास्फीति की उच्च दर , सरकार की सफलता का पैमाना हो। लेकिन यह आपके नजरिये पर निर्भर करता है। वर्ष 2004 में जब मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री पद का कार्यभार संभाला, कभी उनके सर पर कांटों का ताज पहना दिया गया था, जिनमें मुख्य रूप से किसानों की आत्महत्या, खादान्न समस्या , महांगाई,रोजगार आदि है। जिससे लड़ने के लिए सरकार ने किसानों द्वारा बैंकों से लिए गए ऋण और बकाया को माफ करने का फैसला किया। इसके बाद सरकार ने सालाना आधार पर सरकारी खरीद के लिए दाम बढ़ाए, जो कुल मिलाकर पिछले पांच साल में 72 फीसदी बढ़े हैं। आखिर में सरकार ने ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की शुरुआत की। और पहली बार ग्रामीण इलाकों पर मेहरबानी बख्शी गई। जिसका फल सरकार को कृषि उत्पादन में पिछले 6 वर्षों के दौरान 35 फीसदी इजाफा के रूप में मिला , साथ ही खरीद सत्र की शुरुआत से पहले सरकारी खाद्यान्न भंडार अनाज से ठसमठस भरे पड़े हैं। पिछले दो साल के दौरान कृषि आय में 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। इसी बदलाव से खुश होकर मुख्य आर्थिक सलाहकार को कहना पड़ा कि गरीब किसानों की कमाई महंगाई के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ी है। ग्रामीण बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण के आंकड़े भी कई गुना बढ़ गए हैं। कुछ समय पहले के हालात और मौजूदा हालात में इससे ज्यादा अंतर कभी देखने को नहीं मिला। अर्थात लगातार तरक्की ही तरक्की हासिल की जा रही है । फिर जनता के पाले में गम, मायूसी, बेचैनी, घुटन क्यों है। ये सवाल सरकार की खुशी पर थोड़ा ब्रेक लगाती है और उसे जमीनी सच्चाई को दिखाती है। क्योंकि यहां हर गुरूवार को कीमतें नए आसमान को छूती जा रही है, मैनें तो सात ही आसमान सुने है.....लेकिन महंगाई कितने आसमान को छूएगी किसी को नहीं पता। सारे लोग अपनी- अपनी धूना रमा रहे हैं। महंगाई के बारे में अगर मै कुछ कहूं तो इसका कारण साफ है कि जो सरकार की बड़ाई मैने ऊपर की है उसी को देखकर सरकार शुरूआती दौर में फूली नहीं समाई और एक-दूसरे को बधाई देने में इतनी मशरूफ हो गई की बाकी किस दिशा में कार्य करना है वो भूल गई। इसी गलती का फल उसे छोली में सुरसा रूपी दानव महंगाई के रूप में आया। पिछले 5-6 साल हो गए लेकिन जिसका पेट भरता ही नहीं है, और अब तो वो मनुष्यों को भी अपने निवाले के रूप में खाए जा रहा है। किसान, मजदूर, गरीब, आदि राक्षस के काल के गाल में समाए जा रहा है। महंगाई इस कदर मुंह फांड़े खड़ी है कि इसके आगे सारी योजनाएं, नीतियां,आयोग बैठके सब बौनी नजर आ रहे हैं। अब तो सरकार ने भी उसे उसी के हाल पर छोड़ दिया है, और हर सप्ताह आने वाले आंकड़ोे पर सिर्फ अफसोस और चिंता करने के सिवा और कुछ नहीं कर करती है। तो वहीं इस आग में जनता के प्रिय मंत्रीयों के घोटालोंं ने तो घी डालने का काम किया है। और आग और भड़कती ही जा रही है। और पिछले सप्ताह आए आकड़ों में महंगाई ने फिर अपना दस का दम दिखाते हुए दहाई के आंकड़े को भी पार कर लिया है। जिसके बाद सरकार के जिम्मेदार मंत्रियों ने एक बार फिर एसी चैंबर में बैठकें की, चाय पीया,स्नैक्स खाए और चिंता और अफसोस जताया,और अगले सप्ताह आने वाले आंकड़ों के एवज में क्या जवाब देना है इसके प्रेक्टिस में जुट गए। तो वहीं दूसरी तरफ जनता भी आक्रोश से भरी हुई सड़कों पर उतरकर चिल्ला-चोट करने लगी है, टमाटर,बैगन, आलू को गले में पहनकर सिलेंडर हाथों में लेकर सरकार का विरोध करने लगी। लेकिन सही मायनों में तो उनके हाथ में फिर निराशा लगी, भावनाओं को कुचल दिया गया। ये धूप में नौकरी से छुट्टी लेकर गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाना उसकी ेबेबसी को दर्शाता है। बेचारी करें भी तो क्या ! फिर से वो भी अगले सप्ताह फिर महंगाई को कम कराने के लिए अपने-अपने अराध्य देवताओं को मनाने का प्रयास करना शुरू कर रही है। लेकिन परेशानियों का बोझ अभी जनता पर लदना खत्म नहीं हुुआ आब बारी है भारतीय रिजर्व बैंक की जो हर महंगाई के आंकड़ों के आने के बाद, आंखे मूदकर अंधाधूंध लगातार इस आस में ब्याज दरों को बढ़ा रही है, शायद कभी ना कभी तीर तुक्के से ही सही निशाने पर लग जाए। लेकिन अभी तक तो उसके12 तीर (12 बार ब्याज दरें बढ़ाई जा चुकी है) तो खाली जा चुके हैं। कहने का मतलब यह है कि टारगेट और मंदिर का तो सिर्फ घंटा जनता को बनाया गया है, जिसे बार-बार बजाया जा रहा है। क्या करें.......चलिए अब निकलता हूं चाय के लिए हां क्योंकि महंगाई कितनी भी बढ़े पर पत्रकारों का दिन भर में चाय पे चाय पीना नहीं छूट सकता है। चलो बाकी बहस चाय की दुकान में । लेकिन चुंनिंदा अर्थशास्त्रीयों की फौज लेकर भी लड़ने में दिक्कत क्यों?
सौरभ कुमार मिश्र (मिश्र गोरखपुरिया)
Monday, December 27, 2010
क्रेडिट कार्ड या जी का जंजाल

बचपन में घर के बड़े लोगों सो एक कहावत सुनी कि....जितनी चादर हो पैर उतना ही पसारना चाहिए......पर इस कहावत का मतलब समय के साथ-साथ समझ में आने लगा है...क्योकि कोई भी व्यक्ति अपने अनुभवों से ही सिखता है....लेकिन आज ये कहावत सिर्फ निम्न मध्यम वर्ग और छोटे शहरों के लिए ही रह गया है...क्योंकि आज की तेज़ रफतार ज़िंदगी .जल्द अमिर बनने की चाहत और वेस्टर्न कल्चर मनें जीने की ज़िद ने लोगों को मशीन बना दिया है...वो कुछ भी सोचना नहीं चाहते..और जब बात दिखावा करने का हो तो हो शायद एकदम ही नहीं.........मेट्रों कल्चर ने लोगं को आवश्यकता सेअधिक खरीदने का आदी बना दिया है...अगर किसी को दो पैंट खरीदनी है..आर वो शांपिग के लिे मॉल का रूख कर रहा है तो बस क्या पुछना..फिर तो वह अपनी पूर्वनिर्धारित खरीदारी को ताख पर रक कर..जब तक खरीजारी करता है जब तक उसके दोनों हाथ भर जायें......और उसे पर्स निकालने में आसानी न हो...और उसके इस तरह के लाईफस्टाइल के आग में घी का करता है..ये छोटा सा क्रेडिट कार्ड....
जब बात कार्ड की चल गयी है तो इसकी विशेषताओं (कमियां) को भी जान ले.....क्रेडिट कार्ड जो लोगों को कर्ज में जीने का नया लाईफस्टाईल दे रहें है....नहीं नहीं दिमाग पर ज़ोर ना दे मै बताता हूं....क्रेडिट कार्ड ऋण बहुत आम ऋण में से एक है...जिसमें आप आपने आप ही डूब जाते है......सच कहे तो यह एक ऐसी कुल्हाड़ी है ..जिसमें भले ही आप अनजाने में लेकिन मारते रहते है..जब तक आप को दर्द का एहसास नही होता है....और इसके दर्द का एहसास तब होता है..जब क्रेडिट कार्ड से खर्चे रुपये को आप सूद-ब्याज सहित भरते है....आप के द्वारा बिंदासपन से खर्च किये रूपयें को भरने के लिए भी बैंक आप को रिआयत देती है..सबसे पहले तो पैसे ना होने की स्थिती में आप को प्रारम्भिक पैसे आदा करने को कहती है...जो आप को थोड़ी खुशी देता है..लेकिन अगले महिने जुड़कर आने वाला ब्याज आपके होश फाख्ता कर सकता है...क्योकि न्यूनतम राशि भी चुकाने के स्थिती में नही होतें है.....और इसका नतीजा यह होता है कि आप सर से पांव तक केडिट कार्ड ऋण के तले दब जाते है....
और इसके बाद शुरू होता है रिकवरी यमदूतों (एजेंटों) के फोन कॉल का सिलसिला...जो अपके जिन का चैन और रात की नींद को उड़ा देता है..और आप के पास माथा पिटने के सिवाय और कोई चारा नहीं बचता...इस जगह पर मेरी बचपन में सुनी गयी कहावत चरितार्थ होती है...कि अगर आप चादर से ज्यादा पैर फैलाएगें तो परेशानियों को दावत देंगे....इसलिए हम सब के लिए इस कर्ज रूपी परेशानी से बचने के लिए....कड़वा लेकिन अचूक इलाज है....आप मेरे इन बातों से परेशान हो गये होगें...परन्तु आप परेशान ना हो क्योकि मेरा और आप का साथ सिर्फ कोसने तक का ही नही था.....अगर मैंने आप को परेशानियों से रूबरू कराया है तो आप के दर्द पर मलहम लगाने का फर्ज भी मेरा ही है......बात सिर्फ इतनी सी हैं कि............
मेट्रों शहर में रहवासी ये कोशिश करें कि फालतू के खर्चों से किस तरह से बचा जाय........कोशिश करें कि आप हर महिने प्राप्त होने वाली आय के आधार पर अपने ज़रूरी सामानों की लिस्ट तैयार करें......साथ ही प्राप्त आय में से बचत करने का भी उपाय करें जिनका आप को निकट भविष्य सार्थक निवेश कर सकें.....बचत के साथ-साथ अपने क्रेडिट कार्ड से दूरी बनाने की कोशिश करें.....और डेबिट कार्ड से लगाव बढ़ावें.....जिससे आप के खर्चें आप के जांच के दायरें में रहेंगें...इस तरह आप अनुशासित खर्चे करेंगें और क्रेडिट कार्ड ऋण के बोझ तले दबने से बच जायेंगें...
लेकिन इसका मतलब ये ना समझियेंगा कि मैं आप के क्रेडिट कार्ड से कन्नी काटने को कह रहा हूं...इसकी भी उपस्थिती आप के लिए महत्वपूर्ण है...जो विशेष अवसरों पर आप का साथी बनता है....उदाहरण के तौर पर यदि परिवार का कोई सदस्य अचानक बीमार पड़ जाये...और उसे अस्पताल ले जाना पड़ता है और आस-पास कोई एटीएम ना हो तो ऐसी स्थिति में क्रडिट कार्ड ही उपयोगी साबित होता है...लेकिन फिर भी इसका उपयोग आवश्यकता के हिसाब से ही करें..
क्योंकि जैसे ही आप के हातों में क्रेडिड कार्ड रूपी शक्ति आती है तो मनुष्य अपनी प्रवृत्ति के अनुसार इसका ग़सत इस्तेमाल करना शुरू कर देता हैं...और भस्मासुर की तरह खुद को है भस्म करने लगता हैं.....
इसलिए अभी तक के बातों को एक बार और याद दिलाते हुए ये कहना चाहूंगा कि एस क्रेडिट कार्ड रूपी आधुनिक शक्ति का प्रयोग समय-समय पर आवश्यकता पड़ने पर ही करें..अन्यथा ये क्रेडिट कार्ड का जाल आप के जी के लिये जंजाल बन सकता है...
सौरभ कुमार मिश्र
(मिश्र गोरखपुरिया)
Wednesday, December 1, 2010
..शेयर बाज़ार के चुंबकत्व का प्रभाव

शेयर बाज़ार सुनकर अच्छा लगता है...ढ़ेर सारे पैसे..शेयरों का ना समझ में आने वाला ताम-झांम। मनोबैज्ञानिक जादूई आकड़े..जो सपनों से भी आगे ले जाते है..लेकिन जैसे ही आखे खुलती है तो सब छू मंतर...यानि सोच से बिल्कुल इतर.....आप सोच रहे होगें की इस तरह की नौसिखिए सी बाते क्यूं कर रहा हूं...इसका कारण ढ़ेर सारा पैसा ही है...जिसे देककर लोग नौसिखिए ही बन जाते है...क्यू किं जल्दी धनी बनाने और चुटकी में बुलंदियों पर पहुंचाने के इस शेयर बाज़ार नामक खेल सभी को अंधा और नौसिखियां ही बना देता है...और बदलते वक्त के साथ मार्केट की रणनीति इस तरह बदली है कि.. बड़े –बड़े खिलाड़ी भी ...इसमें कूदने से डरने लगे है......टीम के कोच (शेयर बाजार के धुरंधर) भी मैच देखकर माथा पकड़ बैठ जा रहे है....लेकिन इन सब बातों के बाद भी ये बाज़ार रूपी चुंबक लोगों को अपनी तरफ खींच ही लेता है....बहुत दूर जाने की आवश्कता नही है..बात दो साल पहले की है जब बाज़ार शेयर धारको पर मेहरबान था... लोगों ने भी उसका खूब फायदा उठाया और छक के रबड़ी खायी..यहां तक की शेयर बाज़ार का श भी ना जनने वाले लोगों के जबान पर भी करोड़पति बनने का भूत सवार हो गया था.....लोगों को लाल और नीले रंग(शेयर बाज़ार के तत्काल स्थिति को बताने वाले रंग) के अलावा कुछ दिखता ही नही था......लेकिन जैसे ही ऊंट ने (शेयर बाज़र) करवट बदला तो सबके होश फाख्ता हो गयें.....कितने तो करोड़पति तो ना बन सके..पर बैकुंठ वासी जरूर बन गये..तो कितनों ने शेयर बाज़ार से तौबा कर ली...खैर जैसे तैसे बाजार जो बहुत महिनों तक तमाम कलाबाजिया खाता हुआ....अपने पुराने रंग में लौट आया.. और जिन लोगों ने खेल से सन्यास लेने की बात की थी...वे फिर खेलने को बेकल हो गये....और फिर शुरू हो गया वन डे मैच...रोज़ हार और रोज़ जीत....जिसने शेयर बाज़ार को फिर बना दिया 21000 हज़ारी.... और फिर वही हुआ....बाज़ार तमाम घोटालों के भेंट टढ़ गया...हां हां मुझे पता है कि आप को शेयरों की अछ्छी समझ है....... मुझे तो इन शेयरों के ताम झाम का ज्ञान कम है....लेकिन.... इस शेयर कथा कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि जो इस खेल के मझे खिलाड़ी है..वो भी इस तरह के नौकिखियों की तरह काम करते है......जिसका मुआवजा उनकों या तो जान से या तो सब कुठ गंवा कर देना पड़ता है........और साथ ही वे निवेशक भी पीस जाते है..जिनकों बाज़ार की ए बी सी डी भी नही आती है...इस पर तो इतना ही याद आता है कि.......लोग रूक रूक के संभलते क्यूं है..पांव जलते है तो फिर आग पर चलते क्यूं है... 
                                                सौरभ कुमार मिश्र
                                                (मिश्र गोरखपुरिया)
 

