Sunday, December 18, 2011

अमानवीय व्यवहार।


यह चौंकाने वाली छवि मिस्र सेना की है जहां बहादुर महिलाओं के विरोध के दौरान सेना ने उनसे ज्यादती की। सेना के जवानों ने महिलाओं के कपड़े फाड़ दिए और पैरो से उनका छाती पर प्रहार कर उन्हें घसीटते हुए ले गए।

विदेशी किराना पर किचकिच


सरकार मल्टी रिटेल ब्रांड बाजार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को मंजूरी देने पर उतारू थी। लेकिन सरकार के इस विदेशी किराने के मंसूबे पर का जबर्दस्त किचकिच और विरोध हुआ, और सरकार को ये विचार ठंडे बस्ते में डालना पड़ा। इस विचार पर सारे विरोधी दल सरकार के इस कदम का विरोध कर रहे हैं। इन दलों का कहना है कि सरकार का यह कदम देश के लाखों लोगों के लिए घातक साबित हो सकता है। रिटेल क्षेत्र की देश की कुल जीडीपी में 11 फीसदी हिस्सेदारी है। और इस क्षेत्र में लगभग 4.5 करोड़ लोगों को रोजगार मिला रहा है। 1998 की चौथी आर्थिक गणना के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में 38.2 फीसदी रोजगार रिटेल क्षेत्र में था जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 46.4 फीसदी रहा। इसलिए यह बहुत स्पष्ट सी बात है कि अगर रिटेल बाजार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को मंजूरी दी जाती है तो इसका असर रिटेल में मिलने वाले रोजगार पर अवश्य ही पड़ेगा। भारत में रिटेल आउटलेट का घनत्व काफी ज्यादा है। भारत में औसत रूप से प्रति 11 व्यक्ति पर एक रिटेल स्टोर है। अगर इस तरह से टर्न ओवर और व्यापार के लिहाज से बात करे तो यह वालमार्ट जैसी कंपनियों से तीन गुना ज्यादा है। अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि अगर इस स्थिति में वालमार्ट और टेस्को जैसी कंपनियां यहां आती हैं तो वह किस तरह से रोजगार का सृजन करेंगी और जो दावे किए जा रहे हैं उनके आने से कितने लोगों को रोजगार मिलेगा। क्या इन कंपनियों के आने के बाद जो सरकार की जो धारणा बनी हुई है वो सही साबित होती है या फिर दूर के ढोल ही सुहावना लगते है। जानते हैं कुछ खास तथ्य- दलालों पर शिकंजा लेकिन एकाधिकार का खतरा- सरकार एफडीआई पर दिए जाने वाले अपनी सभी बयानों को सही साबित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रही है ऐर अपने कदम को सही ठहराने की कोशिश कर रही है। सरकार का कहना है कि अगर मल्टीब्रांड क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को लाया जाएगा तो इससे बिचौलियों की भूमिका पर लगाम लगेगी। ये कंपनियां सीधे प्राथमिक उत्पादक से माल खरीदेंगी, जिससे किसान और छोटे उद्योगों को फायदा मिलेगा। लेकिन अगर इस पर गहराई के साथ सोचे तो सरकार का यह तर्क भी कहीं टिकता नजर नहीं आता है। अगर इन कंपनियों का इतिहास देखा जाए तो हम पाते हैं कि ये कंपनियां जहां पर भी जाती हैं पहले तो उस जहग के बाजार को समझती है उसके बाद उसपर कब्जा करने के इरादे से लोगों को प्रलोभन देती है। लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे वहां अपना आधिपत्य स्थापित कर लेती हैं और एकाधिकारी बनकर मनमाने तरीके से उत्पादों के दाम तय करती हैं। अगर ये कंपनियां सीधे किसानों और छोटे उद्योगों से सामान खरीदती हैं तो सौदा कम समय (शार्ट टर्म) के लिए तो बहुत मरहम लगाने वाला होगा लेकिन लंबे समय के बाद आसा दर्द बन जाएगा जिसपर कोई भी दवा काम नहीं कर पाएगी। ये कंपनियां अपने लाभ को बढ़ाने के लिए इन प्राथमिक उत्पादकों के अपनी मनमानी कीमत पर उत्पाद खरीदेंगी और किसान और छोटे उत्पादक कुछ नहीं कर पाएंगे। ऐसी स्थिति में बिचौलियों को खत्म करने का मतलब ही क्या रह जाएगा? यही नहीं बाजार पर अपना आधिपत्य हो जाने के बाद ये कंपनियां उपभोक्ताओं को भी नहीं बख्शती हैं और उनसे भी खूब कीमत वसूलती हैं। वैश्विक स्तर पर की जाने वाली बिक्री इन मल्टीनेशनल कंपनियों के राजस्व का महत्वपूर्ण स्रोत होती हैं बल्कि इनकी आमदनी का मुख्य जरिया ही वैश्विक बिक्री होती है। चीन का होगा दबदबा- यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि वाल मार्ट का 70 फीसदी उत्पादन चीन में होता है। इसका मतलब यह है कि वालमार्ट सामान दुनिया के चाहे किसी भी कोने में बेचे लेकिन उसका 70 फीसदी उत्पादन होता चीन में ही है। इस तरह से अगर देखा जाए तो सरकार अगर रिटेल में विदेशी मल्टीनेशनल कंपनियों को आने की मंजूरी देती है तो इससे रोजगार तो नहीं बढ़ेगा लेकिन लागत के मामले में भारतीय कंपनियों को प्रतिस्पर्धा जरूर करनी पड़ेगी।जब भारतीय कंपनियों को कोई नुकसान होता है तो इससे रोजगार प्रभावित होगा। जाहिर सी बात है कि अगर कंपनियों का मुनाफा घटेगा तो वे छंटनी करेंगी जिससे लोगों का रोजगार छिनेगा। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि अगर इन्फ्रास्ट्रक्चर का सारी जिम्मेदारी विदेशी कंपनियों के हाथों में सौंप दी जाएगी तो इस बात की कौन गारंटी देगा कि वे देशहित और ज्यादा से ज्यादा लोगों के हित में काम करेंगी। यह अपने आप में एक बहुत जटिल मुद्दा बन चुका है। इसकी संवेदनशीलता को देखते हुए सरकार को इस मुद्दे पर सोच विचार के बाद ही आगे बढनÞे का फैसला लेना चाहिए। इस तरह के मुद्दों पर समझदारी और आपसी सहमति के आधार पर ही आगे बढ़ा जाना चाहिए। नहीं तो जल्दी का काम शैतान का होता है। बिना किसी के पक्ष को सुने जबरदस्ती विदेशी किराने को जनता के उपर थोपने का परिणाम धनात्मक हुआ तो ठीक होगा, नहीं तो चिडिंया के खेत चुगने के बाद, सिर्फ माथा पिटने के अलावा हम कुछ भी नहीं कर सकते है। इसलिए अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने से कोई भी फायदा नहीं होगा। जय हिंद सौरभ कु मिश्र (मिश्र गोरखपुरिया)