Thursday, August 30, 2012

नेता-कंपनी गठजोड़ के नवयुग का आरंभ


   भारत जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र वाला देश होने का तमगा मिला है. शायद इसी लोकतंत्र के लोगों को कुछ भी करने की छूट भी मिल जाती है. एक तरफ लोकशाही हावी है तो दूसरी तरफ राजनीति. इन दोनों के खीचातान में फंसा है भारत. सोने का चिड़ियां, प्राकृतिक संसाधनों की बहुतायत उपलब्धता, लचीला संवीधान शान्ति पसंदगी वाला यह देश अब शायद अपने आपात स्थिती से गुजर रहा है. इसका सबसे बड़ा कारण देश में बढ़ता भ्रष्टाचार, अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई और, गिरती कानून व्यवस्था और विकास दर. देश में जिधर भी निगाहें दौड़ाए घोटालों और नकारात्मक खबरों के अलावा कुछ भी नया नहीं मिल पाता है. इसी के साथ प्राकृतिक संसाधनों की खुली बंदरबांट, कुछ भी करने को तैयार निजी क्षेत्र और एक-एक कंपनी के टर्नओवर के बराबर संपत्ति वाले राजनेता. यदि इसी को हम देश की तरक्की और उदारवाद का नाम दे रहे हैं तो सरासर गलत होगा.

    लेकिन राजनीति से बोझिल व्यवस्था, लचर कानून, जरूरी सुविधाओं की कमी और भ्रष्टाचार वाले समाज में उदारीकरण शायद ऐसी ही होता है. प्राकृतिक संसाधन किसी भी देश की तरक्की की नींव होते हैं, लेकिन संसाधनों को संभालने वाले कानून अगर बौने हों और इसकी देखरेख करने वाली निगाहें भ्रष्ट तो खुला बाजार खुली लूट का अड्डा बन जाते हैं. सही मायने में सीएजी की रिपोर्ट ने ही भारत के तरक्की की सबसे दो टूक समीक्षा की हैं. अब देश में घोटाले भी इस तरह के है, जो देश के संपूर्ण राजस्व से कुछ गुना ही कम होते हैं. यदि घोटालों की शुआती दौर पर निगाह डाले तो हम पाते है कि भारत के सभी  बड़े घोटाले 1997 के बाद ही हुए हैं। यानि कि उदारीकरण के 6 सालों के बाद.

    शायद उदारीकरण के पहले छह वर्षो में बाजार के खिलाड़ी यह समझ गए थे कि इस बाजार में कहां कैसे क्या हो सकता है, इसलिए सभी घोटाले पिछले एक दशक के हैं, जब उदारीकरण अपने चरम पर था. इनमें भी सबसे ज्यादा लूट प्राकृतिक संसाधनों की है. खदान, खनिज, जमीन, स्पेक्ट्रम आर्थिक विकास की बुनियादी जरूरत हैं. श्रम और पूंजी देश से बाहर से ला सकते हैं, मगर प्राकृतिक संसाधनों का आयात नहीं हो सकता. समझदार सरकारें देश के प्राकृतिक संसाधनों को बाजार के साथ बड़ी चतुराई से बांटती हैं. संसाधनों की वाणिज्यिक कीमत का तथ्यात्मक व शोधपरक आकलन होता है. भविष्य की संभावनाओं का पूरा गुणा भाग करते हुए यह आंका जाता है कि कितने संसाधन विकास के लिए जरूरी हैं और कितने बाजार के लिए. इनके आधार पर सरकारें बाजार से इसकी सही कीमत तय करती हैं और बाजार से वह कीमत वसूली जाती है, क्योंकि बाजार इनके इस्तेमाल की कीमत उपभोक्ता से लेता है.

      लेकिन देश में अब बांटने का चलन खत्म हो रहा है क्योकि अब देश में संसाधनों का बंदरबांट शुरू हो चुका है. भविष्य तथा बाजार की आवश्यकताओं को ताख पर रखकर अपनी जेबों को भरने की भागम भाग लगी हुई है. इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण 2 जी स्पेक्ट्रम तथा कोयला खादान घोटाला हैं. अब सरकार भी चैन की नींद लेती है और उसके इस नींद में खलल पैदा किए बिना संसाधनों का आवंटन हो जाता है. जो बाद में घोटालों के रूप में अपनी महागाथा कहता है.

   दिल्ली का हवाई अड्डा बनाने वाली जीएमआर डायल को 24 हजार करोड़ रुपये की करीब पांच हजार एकड़ जमीन केवल सौ रुपये की सालाना लीज पर इसलिए मिल गई, क्योंकि निजी क्षेत्र की भागीदारी से बनने वाली परियोजनाओं में भूमि की कीमत तय करने का पारदर्शी पैमाना ही नहीं है. भारत में स्पेक्ट्रम कभी कौड़ियों तो कभी बहुत महंगा इसलिए बिका, क्योंकि इस कीमती संसाधन को बांटने की नीति ही नहीं बनी.

 कंपनियों को मनमाने ढंग से कोयला खदानें इसलिए दे दी गईं, क्योंकि सरकार खदानों के पारदर्शी आवंटन की नीति ही नहीं बना सकी. जमीन की जमाखोरी भारत का ब्रांड न्यू् आर्थिक अपराध है. जमीन हर जगह पहली जरूरत है, लेकिन भारत सेटेलाइट जमाने में भू संसाधन को ब्रिटेन कानूनों के जरिये संभाल रहा है. अदालतों ने जमीन के सरकारी अधिग्रहण को खारिज कर दिया तो पूरी नीति ही सर के बल खड़ी हो गई. अब पैसा लगाने वाले निवेशकों से लेकर कर्ज के जरिये मकान लेने वाले मध्यमवर्गीय लोगों तक सभी बीच में राह खड़े नई नीति का इंतजार कर रहे हैं. जिन फैसलों के लिए पारदर्शी नीतियां होनी चाहिए उनके लिए पहले आओ पहले पाओ के आधार पर फैसले होते हैं. कानूनों के बनने में देरी या उनका लंबे समय लटके रहना आदत नहीं है, बल्कि षड्यंत्र का हिस्सा है. भ्रष्टाचार को आंकने वाले सभी अध्ययनों में ब्राजील, भारत, रूस, चीन, मलेशिया आदि भ्रष्टतम देशों के चैंपियन हैं.

 

     सही मायने में एक कंपनी को शून्य से सौ करोड़ रुपये के कारोबार तक पहुंचने में पता नहीं कितने लोग, कितनी तकनीक, कितना निवेश जोड़ना पड़ता है और ऐसा करते हुए कंपनी के मालिकों की आधी जिंदगी गुजर जाती है. अलबत्ता भारत में एक राजनेता कोई उत्पादक निवेश किए बगैर पांच साल में शून्य से सौ करोड़ की घोषित संपत्ति का मालिक हो जाता है. उदारीकरण ने राजनेताओं के हाथों में बेचने की अकूत ताकत पहुंचा दी है। दूसरी तरफ मोटी जेब वाली कंपनियां कुछ भी करने को तैयार हैं. हम मुक्त बाजार की विकृतियों को संभाल नहीं पा रहे हैं. सातवें-आठवें दशक के नेता अपराधी गठजोड़ की जगह अब नेता-कंपनी गठजोड़ ले ली है. मुक्त बाजार में ताली दोनों हाथ से बज रही है. परन्तु अगर आने वाले समय में संसाधनों के बंटवारे के कानून में बदलाव नहीं किया गया तो यह बंदरबांट आगे भी बे-रोकटोक चलती ही रहेगी.

                                                             सौरभ कुमार मिश्र

                                                             (मिश्र गोरखपुरिया)

 

 

Friday, August 24, 2012

पत्रकारिता = चाटुकारिता (पौराणिक कथा)


एक बार एक वरिष्ठ पत्रकार अपने नौकरी के व्यवस्थित रूटीन तथा अपने बॉस से परेशान होकर फूट-फूट कर रो रहा था। और जोर जोर से चिल्ला रहा था हे ब्रम्ह देव मदद करें। हे ब्रम्ह देव मदद करें। उसके इस प्रकार के करूण क्रूदन को सुनकर ब्रह्म देव आने की बहुत कोशिश कर रहे थे लेकिन पत्नी के किसी जरूरी काम के कारण वो आ नहीं पा रहे था। अत उन्होने अपने मानस पुत्र और प्रथम पत्रकार (जिन्होने इस तरह के प्रोफेशन का कीड़ सबको कटाया) नारद जी को उसके कष्ट को दूर करने के लिए भेजा। उनके इस आदेश को सुनकर पहले तो नारद थोड़ा सकुचाए, क्योकि वो तो इस पत्रकारिता नामक पेशे से भली भांति परिचित थे, साथ ही उस पत्रकार के रोने का कारण भी जानते थे। फिर भी वो ब्रम्ह दे के कहने पर उससे मिलने धरती पर आए। और उससे दिखाने के लिए रोने का करण पूछा। नारद जी को देखकर पहले तो वो पत्रकार बिफर गया फिर शांत होकर अपनी व्यथा सुनाई।  जब उसने अपनी व्यथा का प्रारंभ किया तो वो यह भूल गया कि सामने भगवान है और अपने पेशे और बॉस को प्रबंधन की मां.........बहन......करते हुए अपनी बात कहने लगा।
और कहने लगा कि मैं इतना बछठा लिखा डिग्री होल्डर लोग मुझे समझदारी का पिटारा कहते है उसके बाद भी यह मेरे मूर्ख बॉस मुझे कुछ नहीं समझता और अपनी ही जोते रहता है, मुझसे अपना ज्ञान बघारता रहता है। मेरी ऐसी तैसी करता रहता है। क्या करू आप ही कुछ बताइए प्रभु। ऐसी स्थिति में नारद ने उनको रोका और कहा कि भाई तुममे चाटुकारिता की कमी है, इसी के कारण तुम्हारे जीवन में मलाई खाने के योग नहीं है। और इसमें बहुत हद तक हर बात पर वरदान बांटने वाले भगवान की गलती है, और इसकी नींव तो बहुत पहले ही रखी जा चुकी थी। इसके पीछे एक पुरानी कथा है ध्यान से सुनो......
कलयुग के शुरूआती दौर में जब तारो तरफ इस तरह कीपरेशानियों ने जन्म नहीं लिया था, तक एक घोर मूर्ख व्यक्ति की मुत्यु हुई। जिसपर दया खा कर भगवान ने उसकी ड्यूटी ब्रम्ह देव के पास लगा दी। चूंकि वो मूर्ख था उसे करना तो कुछ आता नहीं था अत उसने डयूटी ज्वांइन करने के साथ ब्रम्ह दे की चरण वंदना और पीछे-पीछे लग गया और बहुत वर्षों तक घोर चाटुकारिता का परिचय दिया। उसके इस व्यवहार से प्रसंन्न होकर देव ने उसे वरदान दिया कि हे मूर्खों मे श्रेष्ठ हे मूर्ख मै तुम्हारे इस चाटुकारिता धर्म से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिए तुम्हे और तुम्हारे जैसे सभी मूर्खों को वरदान देता हूं कि जब कलयुग अपने चरम पे होगा, तब तुम जैसे मूर्ख चांदी काटोगे। उस समय एक पेशा अपने चरम पर होगा जिसका नाम होगा पत्रकारिता जिसमें कार्यकरने वाले लोग मेहनत और कछिन पढञाई कर के आएंगे। उनमें बौधिक स्तर बहुत अधिक होगा।
वह पूरी दुनियों को सूचना देगें और उनका मूल कार्य पढ़ने लिखने का होगा। लेकिन वे जिस संस्थान में काम करेगें उस के मालिक तुम जैसे मूर्ख होगें। क्योकि उस चरम कलयुग में तुम मूर्खों के पास अकूत धन होगा, जिसके पल पर तुम अपने तरीके से सूचनाओं को तितर-बितर करोगें, भले ही तुमको उसके बारे में कोई त्रान हो या ना हो। और जो भी कर्मचारी तुम्हारी चरण वंदना यानि चाटुकारिता करेगा वो तुम्हारा खास और उसका जीवन लगातार तरक्की को प्रप्त होगा। और जो उसके विपरीत करेगा वो अपना खुद समझ ले। इस प्रकार तुम मूर्खों का इस समाज के बौधिक संस्थान पर पूर्ण वर्चस्व होगा। और तभी से प्रकारिता इस प्रकार का मूर्खों की जरूरी और मजबूरी स्वरूप चाटुकारिता करने का संस्कार आ गया।
हे बुद्धि के धनी पत्रकार महोदय तुम बस अपने ज्ञान पर भरोसा करते हुए चाटुकारिता को तवज्जु नहीं दिया इसी लिए आज तुम परेशान हो। यही नहीं स्वर्ग में भी पत्रकारिता खराब हो गई है, मैने भी यह पेशा छोड़ दिया है। अत मित्र अब यह रोना छोड़ों और मूर्खों की चाटुकारिता वाली पत्रकारिता प्रारंभ करो, इसी में तुम्हारी भलाई है। और ऐसा गूढ़ ज्ञान उस पत्रकार को देने के बाद भगवान नारद नारायण नारायण कहते हुए अंतरध्यान हो गए।
और उस पत्रकार के लिए आगे बढ़ने का रास्ता बता दिया। और उसने उस मार्ग को अपना कर अपना जीवन मलाईदार बनाया। अत पत्रकारो का जीवन क्रीमी बनाने के लिए घोर कलयुगी प्रकारिता में यह एक सीख है। जैसे उनके दिन फिरे वैसे सभी के फिरे। नारायण नारायण.