Friday, April 30, 2010

दर्द-ए-बया


बंद..... जो लोगों को सुनने में बहुत ही साधारण सा शब्द लगता हो....तो ये शब्द कुछ लोगों के लिए आराम का दिन होता हो.... और युवाओं के लिए सैर सपाटे का दिन हो...बंद जो नेताओं का सबसे बड़ा अस्त्र है तो वही सत्ताधारी दल के लिए किसी जहर बुझे तीर से कम नहीं होता...आये दिन समाचार पत्रो में..न्यूज चैनलों में बंद शब्द की ढेर सारी विवेचना सुनने को मिलती है....किसी को थप्ड़ मार दिया तो शहर बंद...हत्या हुई तो दुकाने बंद....मंहगाई से कमर टूट रही है तो भारत बंद....कितना आसान होता है...इस शब्द के अर्थ को सार्थक करना....लेकिन दो अक्षरों से निर्मित ये शब्द कितना विभत्स परिणाम दिखाता है....क्या कभी इस पर भी गौर किया गया...
बंद का असर बंद दुकाने..तोड़ फोड़..मारा पीटी और गाली गलौच...लोगों के व्यापार पर असर..गरीबों के लिए खाने के लाले.......शायद कुछ ऐसा ही होता है बंद का परिणाम...जऱा सोचिए जब सारा कारोबार...ठप्प होता है...हिसां के डर से लोग घरों में बैठे.....ऐश के साथ चाय पकौड़े खाते है..तो इस स्थिती में ये बेचारे रेहड़ी-खोमचे वाले मजदूर जिनकी कमाई रोज़ कमाओं-रोज़ खाओं वाली होती है तो वो भला कैसे करते होगे अपना गुजर बसर......और अगर पापी पेट के लिए दुकान लगा ली तो कमाई में मिलती है...टूटी हुई दुकान और सड़क पर बिखरे पड़े सामन...इन नेताओं के अस्त्र से बेवजह मारे जाते है तो सिर्फ गरीब जनता...
सच भी है इन गरीब जनता के वोटों से सदन तक पहुंचे ये नेता.....खादी पहनते ही इन गरीबों के दुख को भूल इनकी ही गर्दन पर चाकू चलाने लगते है....और इस माहौल में हतप्रभ स्थिती में खड़ा....अपने को सबसे ज्यादा छला जाने वाला ये गरीब अपनी टूटी दुकान.....और बिखरे सामान के साथ बस यही सोचता है कि.....किसने जलाई बस्तियां बाज़ार क्यूं लूटे में चांद पर गया था....मुझे कुछ खबर नहीं.....
सौरभ कु. मिश्र
(मिश्र गोरखपुरिया)

Monday, April 26, 2010

दास्ताने भोपाल…….

मुझे बात याद आती है..जब मै पहली बार भोपाल में आया..शहर जैसा सुना था उससे भी कही ज्यादा सुन्दर था....हर तरफ सिर्फ प्रकृती का खुलापन...ये हरयाली देखकर कोई भी अनायास ही कह पड़ेगा कि...शहर नही जन्नत है...पर समय की सुई जिस तरह आगे बढ़ती गयी..शहर के आबों फिज़ा में जाने कौन सी हवा घुल कि...इसकी ये चौतरफा खुशिया धिरे-धिरे धूमिल पड़ने लगी.....आज जहां एक तरफ अपराध दिन-ब दिन तेजी के साथ अपना पांव पसार रहा है....तो वही सरकार भी विकास के पथ पर इस कदर अग्रसर हो रही है कि...पेड़ों से लेकर घरों तक का अंधाधुंध खात्मा कर रही है..और कारण बन रहा है अतिक्रमण और विकास....शहर में ऐसी कई जगहें थी जहां पर इतने पेंड थे कि..सड़कों तक धूप को आने में काफी मशक्कत करनी पड़ती थी.....लेकिन आज उन सड़को पर धूप ने अपना एक छत्रराज कायम कर लिया है केन्द्र बिन्दु में जो कारण है वो फिर वही विकास की गति और अतिक्रमण......खैर ये तो हुई शहर के पेड़-पौधो का हाल..जिनके बारे में सोचकर मन बहुत दुखी होता है....लेकिन एक बात और है जो इन दिनों दिल में टीस पैदाकर रही है....वो है सरकार के द्वारा चलाया जा रहा अतिक्रमम विरोधी अभियान.......अतिक्रमण को जड़ से मिटाने के लिए सरकार की इस मुहिम में जाने कितने लोगों के आशियाने को तहस नहस कर दिया...लोगों के गाढ़ी कमाई अब धूल फांक रही है....लोग घर से बेघर हो गये...मजबूर है इस चिलचिलाती धूप और खुले आसमान के नीचे जिंदगी गुजर करने के लिए.... तितर बितर पड़े इन सामान को देखकर बेबस ही ये पक्तियां याद आ जाती है कि.....लोग टूट जाते है इक घर बनाने में तुम तरस नही खाते बस्तियां जलाने में..... पर जो बात ज़ेहन में आ रही है....कि कितना अच्छा होता कि सरकार जो चुनाव के समय इन बस्तियों को बसाने की इजाज़त देती है...अगर चुनाव के बाद भी इन्हें वही बसे रहने दे तो .....कितना अच्छा होता कि चुनावी वादों की तरह सरकार इन परिवारों पर कहर गिराना भी भूल जाये....लेकिन सोचने वाली बात तो यह है कि अगर घर उजाड़ने का ही काम करना है... तो फिर बसा कर वाहवाही क्यों लूटना....क्यू कसूरवार बनना इन रोते बिलकते मासूमों और खून के आंसू रोते इन बेघर परिवारों का....क्या चुनाव के बाद सरकार ये बात भूल जाती है कि..... वो इन जनता के दम पर ही......सत्ता की कुर्सी पर आरूढ़ होकर इसका रसास्वादन कर रही है........इस बात पर बशीर बद्र ने क्या खूब लिखा है कि....दुश्मनी करों तो जमकर करों लेकिन इतनी गुंजाइश रहे.....कि अगर दोस्त बन जाये तो शर्मिदा ना होना पड़े.....

SAURABH K. MISHRA

(mishra gorakhpuriya)

Monday, April 12, 2010

भूखे पेट हरि भजन ना होई


शिक्षा सभी के अनिवार्य है..सब पढ़े सब बढ़ा और 6 से 14 साल तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना...ये ऐसी तमाम बाते है..जिन पर नेता आये दिन राजनीति करते रहते है.....शिक्षा के इस मुद्दे पर इतनी बार बहस हो चुका है..कि अब ये खास मुद्दा आम हो गया है....देश में इसी तरह के बहुत से मुद्दे है..जिन पर नेतागण इस तरह की वोट की राजनीती करते है जिसके चलते जनता के ये बहुत ही खास मुद्दे आम बन कर रह जाते है....एक ऐसा ही वोट बैंक को बढाने वाला मामला भूखमरी का ....जो नेताओं के बीच खासा लोकप्रिय भी है........जो आये दिन धुए की तरह दिखाइ तो देता है...लेकिन बादल बन कर गायब भी हो जाता है...सच कहें तो ये मुद्दा भी मौसमी हो चुका है....लेकिन वाकई इस बात पर गहराई के साथ विचार करें तो...ये काफी विभत्स रूप में हमारे सामने खड़ा हो रहा है....मैंने एक लेख पढ़ा था जिसमें पूरे विश्व को भूखों की दुनिया से नवाजा गया था...सच्चाई भी यही कहती है...क्योकि सरकार हर क्षेत्र की उन्नति के लिए तमाम उपाय करती है लेकिन....जाने ये लोग (मंत्री और आला अफसर) किसने भूखे है कि....रोटी से लेकर चारा तक को हजम कर जाते है। और जिन तक पहुंचना होता है वहां तक नहीं जा पाता है.....
भूख जो इंसानी रूह को कपा देती है। भूख जो अच्छे व्यक्ति को बुरा बनने पर मजबूर कर देती है। भूख ही है जो संसार में असंतोष के बीज पैदा करती है। जी हां मैं बात कर रहा हूं विश्व में फैले भूखमरी की। जिसने सभी देशों में हाहाकार मचा कर रख दिया है...जिसके चलते विकास के सारे दावे फेल हो रहे है। 2009 में आये आकड़ों की बात करे तो भूखमरी से विश्व के लगभग 1 अरब लोगों को लील लिया. जिसमें से करीब 1 करोड़ तो भारत के ही है। ये आकड़े नेताओं द्वारा चुनाव में किये गये बड़े-बड़े वादो और घोषणाओं की पोल खोलते है। साथ ही भ्रष्टाचारियों के मुंह पर करारा तमाचा भी मार रहे है। सबसे ज्यादा कम वजन के बच्चे,सबसे अधिक कुपोषित नौनिहाल,बेरोजगार,और गरीबों की फौज से भरा पड़ा ये भारत देश वाकई अतुल्य भारत कहा जाना चाहिए। सरकार की नीतियों और भ्रष्ट्राचारियों के कारण गरीरों और अमीरों के बीच की खाई इतनी गहरी हो गयी है कि इसे पाटना नामुमकिन है। सच्चाई तो यह है कि विश्व की कुल भूखी आबादी का ज्यादादर हिस्सा विकासशील देशों में गुजर बसर कर रहा है। करीब 65प्रतिशत से ज्यादा भूखे-नंगे लोग सिर्फ इन देशों बाग्लादेश,भारत,चीन,इंडोनेशिया,और पाकिस्तान में शामिल है। शायद यह सब इन देशों के लिए किसी उपलब्धि से कम नही है।
चौड़ी सड़के. चमचमाती कोरों की कतार,ग्रहों तक पहुंचने की होड़.शेयर बाजार की उछाल,मॉल का धमाल,आर्थिक विकास दर को पाने की ललक शायद यही सब तो है प्रगति के सूचक। तो वही सूखा और बाढ़ ,बढ़ती गरीबी और भूखमरी का शिकार होते लोग, साथ ही आसमान छूती मंहगाई,आत्हत्या करते किसान,आतंकवाद,नक्सलवाद,लिंग भेद आदि ऐसे तमाम मामले है ..जो अंतराष्ट्रीय मंचों पर देश की मट्टी पलीद करने के लिए काफी है। जब हम बात भूखमरी की कर रहे है तो उपज और जनसंख्या को दरकिनार तो कर ही नहीं सकते है।पिछले एक दशक से अनाज का उत्पादन उतना ही बना हुआ है। साल 1990-91 के सालो में कुल उत्पादन 17.64 करोड़ था। जो दो दशक के बाद 22.98 करोड़ रहा है। यानि इन बास सालों के दौरान जहां जनसंख्या 1.5 करोड़ वार्षिक की दर से बढ़ बढ़ रहा है तो वही अनाज का उत्पादन नगण्य रहा। सरकार की तो पूछो ही मत....आम जनता की सबसे बड़ी हितैषी बनने का दावा करती है..तमाम नीतियां, योजनाओं, घोषणाओं का अम्बार लगा देती है। लेकिन उसके बावजूद भी चालू किये गये तमाम योजनाओं के निष्कर्ष टॉय-टॉय फिस्स होता है। सरकार ने बेरोजगारी दूर करने के तमाम योजनायें लाती है..जैसे महात्मां गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना, काम के बदले आनाज की योजना लेकिन इन सभी योजनाओं पर गौर फरमायें तो ये सभी भ्रष्टाचार के दानव को बलि की भेंट चढ़ गयी। गांधी जी ने एक बात कही थी कि भूखों के लिए रोटी ही भगवान है..संविधान में भी इस बात को कहा गया हा कि पृथ्वी पर पैदा होने वाले हर इंसान को भोजन प्राप्त करने का अधिकार है....लेकिन वर्तमान वैश्विक हालात को देखते हुए तो ऐसा ही कहा जा सकता है कि..पैसा जिसके पास है,भोजन उसके हाथ है...।आज भ्रष्ट्राचार बढ़ती भूखमरी,बेरोजगारी को देखकर ज़ेहन में एक ही बात कौधती है कि आखिर इसका हल क्या होगा? क्योकि भूखे पेट तो हरि भजन नहीं हो सकता । तो फिर समाज, देश की उन्नति कैसे की जायेगी.?आने वाले दिनों में अगर भारत को महाशक्ति के रूप में सामने आना है तो उसे अपने बुनियादे ढ़ाचे पर अधिक मजबूती के साथ ध्यान देना होगा। जब पेट में कुछ जायेगा तो ही आवाज बाहर आयेगी और देश राष्ट्र की बात भी की जायेगी...क्योंकि जिन्दगी बहुत अनमोल है..औऱ हर जीवन का आपना एक उद्देश्य है...
जय हिंद जय भारत सौरभ कुमार मिश्र
(मिश्र गोरखपुरिया)