Monday, October 24, 2011

महंगाई का मकड़जाल में फंसी सरकार,लाचार जनता


पिछले कुछ सालों से मुद्रास्फीति सालाना 10 फीसदी के आसपास ही मंडरा रही है। जिसका पीछे सरकार सिर्फ सरकार की नितियों का फेल होना ही सामने आता है, और दूसरी तरफ उसके (सरकार)सिर्फ बयानबाजी को दर्शाया गया है। लेकिन यह भी मुमकिन है कि खाद्य मुद्रास्फीति की उच्च दर , सरकार की सफलता का पैमाना हो। लेकिन यह आपके नजरिये पर निर्भर करता है। वर्ष 2004 में जब मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री पद का कार्यभार संभाला, कभी उनके सर पर कांटों का ताज पहना दिया गया था, जिनमें मुख्य रूप से किसानों की आत्महत्या, खादान्न समस्या , महांगाई,रोजगार आदि है। जिससे लड़ने के लिए सरकार ने किसानों द्वारा बैंकों से लिए गए ऋण और बकाया को माफ करने का फैसला किया। इसके बाद सरकार ने सालाना आधार पर सरकारी खरीद के लिए दाम बढ़ाए, जो कुल मिलाकर पिछले पांच साल में 72 फीसदी बढ़े हैं। आखिर में सरकार ने ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की शुरुआत की। और पहली बार ग्रामीण इलाकों पर मेहरबानी बख्शी गई। जिसका फल सरकार को कृषि उत्पादन में पिछले 6 वर्षों के दौरान 35 फीसदी इजाफा के रूप में मिला , साथ ही खरीद सत्र की शुरुआत से पहले सरकारी खाद्यान्न भंडार अनाज से ठसमठस भरे पड़े हैं। पिछले दो साल के दौरान कृषि आय में 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। इसी बदलाव से खुश होकर मुख्य आर्थिक सलाहकार को कहना पड़ा कि गरीब किसानों की कमाई महंगाई के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ी है। ग्रामीण बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण के आंकड़े भी कई गुना बढ़ गए हैं। कुछ समय पहले के हालात और मौजूदा हालात में इससे ज्यादा अंतर कभी देखने को नहीं मिला। अर्थात लगातार तरक्की ही तरक्की हासिल की जा रही है । फिर जनता के पाले में गम, मायूसी, बेचैनी, घुटन क्यों है। ये सवाल सरकार की खुशी पर थोड़ा ब्रेक लगाती है और उसे जमीनी सच्चाई को दिखाती है। क्योंकि यहां हर गुरूवार को कीमतें नए आसमान को छूती जा रही है, मैनें तो सात ही आसमान सुने है.....लेकिन महंगाई कितने आसमान को छूएगी किसी को नहीं पता। सारे लोग अपनी- अपनी धूना रमा रहे हैं। महंगाई के बारे में अगर मै कुछ कहूं तो इसका कारण साफ है कि जो सरकार की बड़ाई मैने ऊपर की है उसी को देखकर सरकार शुरूआती दौर में फूली नहीं समाई और एक-दूसरे को बधाई देने में इतनी मशरूफ हो गई की बाकी किस दिशा में कार्य करना है वो भूल गई। इसी गलती का फल उसे छोली में सुरसा रूपी दानव महंगाई के रूप में आया। पिछले 5-6 साल हो गए लेकिन जिसका पेट भरता ही नहीं है, और अब तो वो मनुष्यों को भी अपने निवाले के रूप में खाए जा रहा है। किसान, मजदूर, गरीब, आदि राक्षस के काल के गाल में समाए जा रहा है। महंगाई इस कदर मुंह फांड़े खड़ी है कि इसके आगे सारी योजनाएं, नीतियां,आयोग बैठके सब बौनी नजर आ रहे हैं। अब तो सरकार ने भी उसे उसी के हाल पर छोड़ दिया है, और हर सप्ताह आने वाले आंकड़ोे पर सिर्फ अफसोस और चिंता करने के सिवा और कुछ नहीं कर करती है। तो वहीं इस आग में जनता के प्रिय मंत्रीयों के घोटालोंं ने तो घी डालने का काम किया है। और आग और भड़कती ही जा रही है। और पिछले सप्ताह आए आकड़ों में महंगाई ने फिर अपना दस का दम दिखाते हुए दहाई के आंकड़े को भी पार कर लिया है। जिसके बाद सरकार के जिम्मेदार मंत्रियों ने एक बार फिर एसी चैंबर में बैठकें की, चाय पीया,स्नैक्स खाए और चिंता और अफसोस जताया,और अगले सप्ताह आने वाले आंकड़ों के एवज में क्या जवाब देना है इसके प्रेक्टिस में जुट गए। तो वहीं दूसरी तरफ जनता भी आक्रोश से भरी हुई सड़कों पर उतरकर चिल्ला-चोट करने लगी है, टमाटर,बैगन, आलू को गले में पहनकर सिलेंडर हाथों में लेकर सरकार का विरोध करने लगी। लेकिन सही मायनों में तो उनके हाथ में फिर निराशा लगी, भावनाओं को कुचल दिया गया। ये धूप में नौकरी से छुट्टी लेकर गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाना उसकी ेबेबसी को दर्शाता है। बेचारी करें भी तो क्या ! फिर से वो भी अगले सप्ताह फिर महंगाई को कम कराने के लिए अपने-अपने अराध्य देवताओं को मनाने का प्रयास करना शुरू कर रही है। लेकिन परेशानियों का बोझ अभी जनता पर लदना खत्म नहीं हुुआ आब बारी है भारतीय रिजर्व बैंक की जो हर महंगाई के आंकड़ों के आने के बाद, आंखे मूदकर अंधाधूंध लगातार इस आस में ब्याज दरों को बढ़ा रही है, शायद कभी ना कभी तीर तुक्के से ही सही निशाने पर लग जाए। लेकिन अभी तक तो उसके12 तीर (12 बार ब्याज दरें बढ़ाई जा चुकी है) तो खाली जा चुके हैं। कहने का मतलब यह है कि टारगेट और मंदिर का तो सिर्फ घंटा जनता को बनाया गया है, जिसे बार-बार बजाया जा रहा है। क्या करें.......चलिए अब निकलता हूं चाय के लिए हां क्योंकि महंगाई कितनी भी बढ़े पर पत्रकारों का दिन भर में चाय पे चाय पीना नहीं छूट सकता है। चलो बाकी बहस चाय की दुकान में । लेकिन चुंनिंदा अर्थशास्त्रीयों की फौज लेकर भी लड़ने में दिक्कत क्यों?
सौरभ कुमार मिश्र (मिश्र गोरखपुरिया)