Wednesday, December 1, 2010

..शेयर बाज़ार के चुंबकत्व का प्रभाव


शेयर बाज़ार सुनकर अच्छा लगता है...ढ़ेर सारे पैसे..शेयरों का ना समझ में आने वाला ताम-झांम। मनोबैज्ञानिक जादूई आकड़े..जो सपनों से भी आगे ले जाते है..लेकिन जैसे ही आखे खुलती है तो सब छू मंतर...यानि सोच से बिल्कुल इतर.....आप सोच रहे होगें की इस तरह की नौसिखिए सी बाते क्यूं कर रहा हूं...इसका कारण ढ़ेर सारा पैसा ही है...जिसे देककर लोग नौसिखिए ही बन जाते है...क्यू किं जल्दी धनी बनाने और चुटकी में बुलंदियों पर पहुंचाने के इस शेयर बाज़ार नामक खेल सभी को अंधा और नौसिखियां ही बना देता है...और बदलते वक्त के साथ मार्केट की रणनीति इस तरह बदली है कि.. बड़े बड़े खिलाड़ी भी ...इसमें कूदने से डरने लगे है......टीम के कोच (शेयर बाजार के धुरंधर) भी मैच देखकर माथा पकड़ बैठ जा रहे है....लेकिन इन सब बातों के बाद भी ये बाज़ार रूपी चुंबक लोगों को अपनी तरफ खींच ही लेता है....बहुत दूर जाने की आवश्कता नही है..बात दो साल पहले की है जब बाज़ार शेयर धारको पर मेहरबान था... लोगों ने भी उसका खूब फायदा उठाया और छक के रबड़ी खायी..यहां तक की शेयर बाज़ार का श भी ना जनने वाले लोगों के जबान पर भी करोड़पति बनने का भूत सवार हो गया था.....लोगों को लाल और नीले रंग(शेयर बाज़ार के तत्काल स्थिति को बताने वाले रंग) के अलावा कुछ दिखता ही नही था......लेकिन जैसे ही ऊंट ने (शेयर बाज़र) करवट बदला तो सबके होश फाख्ता हो गयें.....कितने तो करोड़पति तो ना बन सके..पर बैकुंठ वासी जरूर बन गये..तो कितनों ने शेयर बाज़ार से तौबा कर ली...खैर जैसे तैसे बाजार जो बहुत महिनों तक तमाम कलाबाजिया खाता हुआ....अपने पुराने रंग में लौट आया.. और जिन लोगों ने खेल से सन्यास लेने की बात की थी...वे फिर खेलने को बेकल हो गये....और फिर शुरू हो गया वन डे मैच...रोज़ हार और रोज़ जीत....जिसने शेयर बाज़ार को फिर बना दिया 21000 हज़ारी.... और फिर वही हुआ....बाज़ार तमाम घोटालों के भेंट टढ़ गया...हां हां मुझे पता है कि आप को शेयरों की अछ्छी समझ है....... मुझे तो इन शेयरों के ताम झाम का ज्ञान कम है....लेकिन.... इस शेयर कथा कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि जो इस खेल के मझे खिलाड़ी है..वो भी इस तरह के नौकिखियों की तरह काम करते है......जिसका मुआवजा उनकों या तो जान से या तो सब कुठ गंवा कर देना पड़ता है........और साथ ही वे निवेशक भी पीस जाते है..जिनकों बाज़ार की ए बी सी डी भी नही आती है...इस पर तो इतना ही याद आता है कि.......लोग रूक रूक के संभलते क्यूं है..पांव जलते है तो फिर आग पर चलते क्यूं है...

सौरभ कुमार मिश्र

(मिश्र गोरखपुरिया)

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