याद है वो पढने जाने के लिए सुबह उठ जाना ,
ये तो होता था एक बहाना
क्योकि
यही था अपना एक ठिकाना ,
छप्पन -चौकड़ खेल दिन बिताते थे .
चाचा की चाय पीते
और कैंटीन मे रौब जमाते थे
बातों-बातों मे खूब भोग लगाते थे
कुछ मन -मुटाव,कुछ धूप-छाव
होती रहती थी ,
पर छोड़ फिकर ,संग ले सबको निकला करतें थे
कभी गलियों में,कभी सड़को पे,
कभी होटल -रेस्तरा के भीडो मे
कभी बागो में, कभी बस-ऑटो में
विचरा करतें थे .
वापस आने पर बातें होती दिन- भर की
खाना खाते और बनाते मिल कर के,
अब तो सावन का ये मौसम क्यूँ जाने लगा है ,
पतझर का मौसम देखो क्यों आने लगा है
अब सब जीवन की आपाधापी में यू
उलझ गए ,
रिश्तों की गह्ररी गाठ भी अब जैसे सुलझ गई ,
अब तो कभी -कभी फोन से बातें
और मेल से मेल होता हैं,
दिन अब बिसरे यादों को याद कर के रोता है .
याद है फिर ............
आप सब की यादों में खोया एक मित्र
4 comments:
हमारी भी यादें ताजा कर दी आपने
सौरभ जी
सादर वन्दे!
आपकी रचना का विस्तार इतना है की क्या कहे, शायद ही कोई इससे अछूता हो,
रत्नेश त्रिपाठी
याद है पर क्या करे मजबूरी सब कुछ भुला देते है
क्या यादें ताजा करवाई हैं. वाह!
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